Thursday, April 19, 2018

केही अनुदित रचनाहरू ( हिन्दी ) - मातृका पोखरेल


कहानी
निर्णय
मातृका पोखरेल

पश्चिम की ओर से बाजा बजने और गाने का मधुर स्वर, बाल लगना शुरू हुए लहलहाते मक्के की बारी को पार  करता हुआ दनुवार टोल तक आ पहुँचा । बारात नदी की चौपाटी पर आ पहुँची है । अब शाम होते–होते बाराती लोग पहुँच जाएँगे ।— यह कहते हुए  बच्चाें का एक बडा जत्था बारात को देखने के लिए दौड़ पडा  । 
“सभी को तैयार रहना है ।” रबुवा दनुवार ऊँची आवाज में सबको सचेत कर दिया । उसके आदेश पर लोगों की जो भीड उमडा, उसमें एक प्रकार की जैसे तरंग उत्पन्न हो गई । भीड ऐसी लगी जैसे पानी के ऊपर हवा हलचल मचा रही हो । काम–धाम से थककर चूर–चूर हुए लोग भी नए जोश के साथ उसी ओर चल पड़Þे । 
दनुवार टोल में लड़Þकों को विद्यालय भेजने का चलन इसी घर से आरंभ हुआ था । लडकाकों में महज सात साल पहले पकना ने एस.एल.सी. पास किया । उसके एस.एल.सी. पास होने पर दनुवारों को ऐसा लगा जैसे वे स्वयं कुछ शिक्षित हो गए हों । पकना के एस.एल.सी. पास होने की खबर एक बहुत बडी  घटना के रूप में दूर–दूर तक दनुवार बस्ती में बहुत अल्प समय में फैल गई । उसी साल छोटे–छोटे कच्चे–बच्चे से लेकर युवावस्था में प्रवेश कर चुके पर विद्यालय का मुँह तक देखने से वंचित लोग भी स्लेट लेकर दौड़Þने लगे । उसी साल से रबुवा ने अपनी बेटी को स्कूल भेजना प्रारंभ कर दिया, जबकि और कोर्ई भी अपनी बेटी को स्कूल नहीं भेज रहा था । उसके टोल के कई सगे–संबंधियों ने रबुवा की खिल्ली उड़Þाकर अपनी शाम को बेकार की बातों में बर्वाद किया । गाँव वालों और अपनों की बातों पर रबुवा ध्यान नहींं देता था, ऐसी बात नहींं थी । अपने परिवार के लोगों से ही उसने कापÞmी बातें सुनीं— “...बेटी को पढाने की क्या जरूरत है ?” तर्क–वितर्क  करने की उसमें क्षमता नहींं थी, सिपर्Þm इतना कहता— “कहते हैं आजकल के लोगों को बेटा–बेटी में फर्क नहींं करना चाहिए । मुझे भी यह बात ठीक ही लग रही है ।” इन्हींं तर्कों के बल पर वह अपने–आपको बचाता रहता । अदखोई–बदखोई  करने वालों की बहुत–सी बातें रबुवा चुप्पी में ही उडा  देता । धीरे–धीरे सगे–अपने सभी बात  करते– करते थकते गए । 
रामवती ने पिछले साल सातवीं कक्षा उत्तीर्ण की । और पिछले साल ही रबुवा एक छोटी घटना देखने के बाद अपनी बेटी को स्कूल भेजने से हिचकिचाने लगा । 
कटारी में शुक्रवार को बड़ा बाजार लगता है । छोटा–मोटा कस्बा होते हुए भी कटारी अन्य दिन भी प्रायः व्यस्त ही रहता है । सगरमाथा का द्वार माने जाने वाले कटारी में सिंधुली, खोटांग, ओखलढुंगा, सोलुखुंबु लगायत जिÞलाें से सामान इधर–उधर  करने वाले लोग तो आते ही हैं, साथ ही स्थानीय लोग भी मौसम अनुसार के फल–फूल बेचकर इसी बाजार  से अपनी आजीविका चलाते हैं । 
शुक्रवार का दिन, विद्यालय जल्दी बंद होने का दिन था । फुल्कना और रबुवा की सब्जी  जल्द ही बिक गई । फुल्कना दनुवार ने आज रबुवा के सामने एक प्रस्ताव रखा— “आज हमने जो सामान लाया उसके अच्छे दाम मिले हैं, चलकर होटल में कुछ चाय–नाश्ता करें ।” 
रबुवा ने झट से फुल्कना के प्रस्ताव पर सहमति जताई । आज रबुवा की चीज–बीज को भी अच्छी ही कीमत मिली थी । रबुवा को अचाकन झटका लगा और उसने फुल्कना की ओर देखा । फुल्कना एक मधेशी से बातचीत  करने में व्यस्त था । उसे थोडी  बेफिक्री महसूस हुई । अपनी बेटी रामवती का किसी अनजान लड़Þके से हाथ मिलाकर चलना फुल्कना ने देख लिया होता तो टोल के सभी उसे खरी–खोटी सुनाते । इतने बडा  बाजार में जान–पहचान वाले कितने लोग उसे इस प्रकार देखे होंगे । आज रबुवा ने अपनी इज्जत पर वट्टा लगा हुआ महसूस किया । 
रबुवा ने फुल्कना की आँखो से बचकर सामने वाली सड़Þक पर सहमत नजÞर से देखा । उसकी बेटी रामवती एक लड़Þके का हाथ पकड़Þकर पास वाली सड़क की मोड़ से आगे बढ़ती हुई रबुवा की नजÞरों से ओझल हो गई । इस घटना को फुल्कना ने नहींं देखा इस बात से रबुवा को सुकून मिला । वरना आज टोल में रहना मुश्किल होता । पढाने के लिए अपनी बेटी को स्कूल भेजने के रबुवा के निर्णय से फुल्कना भी सहमत नहींं था । 
मन न होने पर भी रबुवा द्वारा मंगाई गई खाने की चीजÞ उसने खाई । फुल्कना को नाश्ता कापÞmी अच्छा लगा । इसलिए उसने और मिठाइयाँ डलवाकर खाईं । उन लोगों ने होटल में बैठकर कभी भी इस प्रकार स्वाद सुख का आनंद नहींं लिया था । दूसरों को सिर्फ  खाते देखा था । 
“रबुवा, तुम अस्वस्थ हो क्या ? इतना खाने वाला आदमी आज कुछ नहींं खाया ।” रबुवा की आंतरिक चिंताग्नि फुल्कना भाँप ही नहींं सका और उसकी अस्वाभाविक अवस्था के प्रति जिज्ञासा जाहिर की । 
“थोडा  सर में दर्द है ।”— रबुवा परिस्थिति की गोपनीयता कायम करने के प्रति प्रयत्नशील रहा । घर पहुँचकर रबुवा अचाकन अपनी पुरानी अड़ानों में परिवर्तन लाने लगा । परीक्षा सर पर होने के समय में बेटी का स्कूल छुडाने का निर्णय किया । “रामवती की बहुत जल्द शादी करनी है ।”— घर आते ही उसने अपनी पत्नी से कहा था । 
“घर में अन्न का एक दाना तक नहींं है, कैसे शादी करवाएँगे ?”— पत्नी ने उसे सचेत किया । 
बहुत पढाना है, शादी–ब्याह में जल्दबाजी  नहींं करनी चाहिए— ऐसा बोलने वाला आदमी क्यों आज कल ऐसी बातें कर रहा है ? उसकी पत्नी की भी यही धारणा थी कि लड़Þकियों कों न पढाया जाय । रबुवा की आजकल की बातचीत से उसकी पत्नी प्रसन्न दिखाई पड रही थी । उसी दिन से बेटी के विवाह के लिए मायके में संदेसा भिजवा चुकी थी । विवाह कैसे करें ? कब करें ? इन प्रश्नों का उत्तर उन लोगों के पास नहींं था । 
रामवती पढ़Þने की जिÞद पर कुछ दिन तक अडी  रही परंतु उसका कुछ भी जोर  न चल सका । रबुवा ने कड़Þे शब्दों में निर्णय सुनाया और उसी दिन से उसने विद्यालय जाना बंद कर दिया । 
एक दिन गाय चराने जाते समय जामुन ने रामवती से कहा था – “मुझे आजकल तुम्हें न देखने पर अजीब–सा लगता है ।” जामुन की बातों को सुनकर कुछ समझने जैसे भाव में रामवती ने उसकी ओर देखा । शर्म से जामुन दूसरी ओर मुड़Þ गया । 
‘काम है’— कहकर दो दिन पहले घर से बाहर गए रबुआ ने एक शाम रामवती के लिए सिर्थौली से लड़Þका देखकर दो महीने बाद शादी होने के प्रस्ताव के साथ घर लौटा । 
“ब्याह तो करेंगे, पर क्या लेकर करेंगे ?” पत्नी की बातों से रबुवा गंभीर हो गया । 
“रामवती, जिससे तुम्हारी शादी होनी है, वह लड़का यही है ।”— दूर से ही माँ ने रामवती को दिखाया । हरे–हरे पत्तों के झरने से चारों ओर पर्वत, जंगल उजाड़ बन गया था । 
“अब कुछ ही दिनों में इस गाँव को छोड़Þकर मैंं जा रही हूँ । नया गाँव, नई जगह कैसा होगा सब कुछ । वहाँ पहाड़Þ, कंदरा कुछ भी नहींं है । वहाँ तीनमंजिली चौपाटी नहींं है । वहाँ जामुन नहींं है । अब तो मेरा ब्याह होने में ज्Þयादा दिन भी बाकी नहींं है । परंतु पिताजी मेरी शादी कैसे करेंगे ? घर में तो कुछ भी नहींं है । सभी का कजर्Þ है ।” कुछ दिनों से हर रोजÞ सुबह उठते ही सोच–विचार में ड़ूब जाती । आज भी इसी सोच में पड़Þ गई । रामवती का मन पिÞmर झकझोरने लगा । 
“अब हमारा–तुम्हारा साथ साथ गाय–भैंसों को चराने के दिन भी पूरे हो गए लगता है । सिर्थौली के लड़Þके से मेरा ब्याह होने की बात है ।”— रामवती जामुन से आज पहली बार अपने विषय में कुछ बोली । 
“क्यों तुम्हारे चेहरे पर अंधेरा छा गया ?”— रामवती जामुन की टोह लेना चाहती थी, इसीलिए कुरेद–कुरेदकर पूछने लगी । 
जामुन उदास चेहरा लिए बनावटी हँसी हँसने लगा । 
“मवेशियों को जल्दी–जल्दी बाँधकर जैसे भी हो तुम मेरी शादी में आना, ठीक है ?” रामवती ने विशेष रूप से आमंत्रित किया । 
“मेरी बातों से आज जामुन के चेहरे पर उदासी छा गई ।”— रात को घरेलू काम–काज निबटाकर रामवती ने धीरे से माँ से कहा । 
“पगली ! वह तुम्हें पसंद  करता है, बात नहींं समझी ?” 
माँ की बातों से रामवती शरमा गई ।
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आज सिर्थौली से आया हुआ एक आदमी रबुवा से मिलकर गया था । बेटी के ब्याह से चिंतित वह आज दिन भर पीलिया लगे हुए बकरे की तरह लुंज–पुंज बना रहा । घर का काम भी वह नहींं कर सका । 
“सिर्पÞm शादी ही तो नहींं है । लड़Þका को भी सामान देना पड़Þेगा ।”— शाम के समय आंगन में खाट पर बैठे अपनों के आगें रबुवा लंबा निच्छ्वास छोड़ते हुए कहा । 
“तुमने क्या कहा ?”— उसकी इस बात से पत्नी भी हैरान हुर्ई । 
“चालीस–पचास लोगों को खिलाना–पिलाना पड़ता है । ये सब कैसे करोगे ? ऊपर से सामान देने की बात भी कैसे पूरी होगी ? फुल्कना ने रबुवा की बाताें पर सहमति जताई । “घर में खाने को नहींं है, किस प्रकार शादी होगी ?” रामवती अपने पिता के कान में फुसफुसाकर बोली । रामवती के इस तर्क से रबुवा को बहुत राहत महसूस हुई । 
“जो आदमी प्रस्ताव लेकर आया था, उसे क्या कहलवा भेजा ?”— रबुवा की पत्नी ने उतावलेपन से पूछा । 
“मैंने कहा, मेरे लिए यह मुमकिन नहींं है । इस पर उसने कहा कि उन्हींं लोगों से बातचीत  करके देखो ।” रबुवा ने अपनी पत्नी की ओर देखते हुए उत्तर दिया ।
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रामवती ने बाँस के बत्ते की भीत के ऊपर बने कमरे के छेद से पश्चिम की ओर झाँका । तावा नदी के किनार कोे ओझल करती हुई धूप कटारी के किनारे स्थानांतरित हो चुकी थी । पश्चिम की ओर के सेमल के वयो–वृद्ध वृक्ष के ऊपर चिड़ियाँ आतीं, चहचहातीं और फीर जंगल की ओर चली जा रही थीं । आज ही एक झड़Þी बारिश होकर रुक जाने के बाद कल, परसों ही जोती हुई बारी से पंखों वाले लाल रंग की चींटियाँ उड़ रही थीं । भीगी जÞमीन से गर्म भाप के साथ मिट्टी की सोंधी खुशबू फैल रही थी । एक बार उसने पहाड़ के किनारे की तरफ  नजर दौड़ाई । पता नहींं क्यों आज उसे उस जंगल के प्रति अत्यंत मोह होने लगा । 
“ओएहोए, बड़ी खुश दिख रही हो रामवती ।”— पल्टू काका की बेटी दैया उसे चिढ़ाती हुई बगल के घर में घुस गई । चाचा लोग बेलौती (डोली लादकर गाँववालों से सहयोग लेने की प्रथा) माँगते हुए गाँव में घूमने लगे । कितने खुश हैं गाँव के लोग । दूसरों को खुश देखकर उसकी गरीबी नामक पीडा ने और अधिक मर्माहत रूप ले लिया । 
“हमारे जÞमाने में तो लड़Þका तलवार लेकर आता था । अब तो वह प्रथा ही कहीं लुप्त हो गई ।”— पास के घर के बड़Þे पिताजी की बेटी फूलन दीदी आंगन में अत्यंत व्यस्त भाव, से जोर  से आवाज लगाती हुई असंतुष्टि जाहिर की । धुएँ की लपट सदृश पहाड़ के किनारे से जमीनी कुहासा आसमान को ताक रहा था । पीत वर्ण में अभी–अभी पसरी धूप को जÞमीनी कुहासे ने थोड़Þी ही देर में ढँक दिया । रामवती सूर्य को देख रही थी । भूमि पर बिछे कुहासे जब कटारी की पहाड़ियों पर से लुप्त हो गए तो ऐसा लगा जैसे सूर्य नीचे उतर रहा हो । सूर्य अवसान के साथ ही उसके अंतर्मन में कौतूहल की आँधी उफनने लगी ।
कमरे से आँगन की ओर दृष्टि दौड़Þाई । जामुन काठ के घेरे से लगकर खड़ा था । शायद उसे रामवती की ही तलाश है । बेचारा ! बचपन में ही माँ–बाप गुजÞर गए । दूसरों के घरों में भटकता रहता है । जामुन के प्रति उसे मन ही मन प्रेम की अनुभूति हुई । 
कटारी में बाजा बजने की आवाज फीर  सुनाई पडी  । वे लोग बाजा बजाते हुए आ रहे हैं, यह उसने सुना था । इस बाजा से रामवती को ऐसा लगा जैसे अपनी गरीबी का मजाक  उडाया जा रहा है ।
“बारात चौपाटी पर पहुँच चुकी है । अब शाम होते ही वे लोग आ पहुँचेंगे ।”— रबुवा की ऊँची आवाज ने भीड में हलचल मचा दी । लकड़िÞयों के घेरे के बीच से रामवती मुँह निकालकर नीचे आँगन में नजर ड़ाली । दो व्यक्ति आकर पिताजी से बातचीत कर रहे हैं । वे लोग लड़के वाले ही होंगे – उसने अनुमान किया । 
उन लोगों के जाने के बाद रबुवा को अपनी बाँह से आँसू पोंछते हुए रामवती ने देख लिया । ऐसा क्यों हुआ, रामवती हैरान रह गई । फुल्कना और बगुवा को पास बुलाकर रबुवा ने कुछ बात की । “उनलोगों ने हमें धोखा दिया ।” फुल्कना बारातियों की ओर देखकर जोर से चिल्लाने लगा । बगुवा भी ऊँची आवाजÞ में चौपाटी की तरपÞm मुड़Þकर गाली देने लगा । 
“दूल्हे कोे संपत्ति चाहिए ।” माँ ने आकर रामवती को सुनाया और कहा— “नहींं तो वे लौट जाएँगे ।” आंगन में जमा हुए लोग इस नए मुद्दे से हैरान हो गए । कुछ क्रोधित दिख रहे थे । कुछ काना–फूसी में लगे थे । 
“लौट जाने के लिए बोल दीजिए, मैंं उस लड़Þके के साथ ब्याह नहींं करूँगी ।”— रामवती फटाफट जमीन पर गिरकर रबुवा से बोली । 
“समाज हमें क्या कहेगा ।”— रबुवा ने रामवती को समझाना चाहा । 
“हम गरीब हैं, यह क्या समाज को पता नहींं है ?”— रामवती ने फुल्कना और रबुवा की ओर देखती हुई समर्थन पाना चाहा । 
“हाँ, हाँ, वे लोग लौट जाएँ ।”— रामवती की बातों पर बगुवा ने भी सहमति जताई । गाँव के युवक पकना के पीछे से चिल्लाए – “हाँ, हाँ, रामवती की बात बिलकुल ठीक है ।” 
समाज की समान धारणा को देखते हुए रबुवा भी मन ही मन खुश हुआ । बारात लौट जाए, यह संदेश सुनाने के लिए पकना को भेजा गया । पकना के पीछे–पीछे युवाओं का एक जत्था बारातियों की ओर दौडा  । 
पकना का जत्था पहुँचने पर बारातियों से खूब झगडा हुआ । बारातियों की तादाद से अधिक गाँव के लोग हो गए । परंतु पकना ने उन लोगों से गाँव के लोगों की मार–पीट नहींं होने दी । अंततः लज्जित होकर बारात लौटी । 
जामुन से रामवती ने आम के पेड़ की ओट में कुछ गुफ्Þतगू की । 
“तुम्हारी मजुरी  हो तो मैं भी खुश हूँ ।” – जामुन ने धीमें स्वर में उत्तर दिया । 
“इसी स्थान पर मैंं आज ही जामुन के साथ ब्याह करूँगी ।”— रामवती माता–पिता से बोली । 
“उस यतीम के साथ, जिसका कोर्ई नहींं ?” रबुवा ने अन्यमनस्कता जताई । 
“उसका कोर्ई हो या न हो, क्या फर्क पड़ता है !” रामवती ने दृढ़ता जताई । 
रबुवा ने पत्नी से सहमति संकेत माँगते हुए उसकी ओर देखा । रबुवा की पत्नी भी उसकी ओर मुड़कर हँसने लगी । 
“अनाथ है तो क्या हुआ ? आदमी समझदार है ।”— फुल्कना ने भी समर्थन दिया । नई जिज्ञासाओं के मध्य विवाह कार्यक्रम आगे की ओर बढा  ।



नेपालीसे हिन्दीमे 
अनु.– पूनम झा



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कविता ( हिन्दी )

चस्मा 

-- - मातृका पोखरेल

तुम्हारे बाजार से खरिदी गई चस्मा से
मैँ शीघ्र ही मुक्ति चाहता हुँ ।

तुम्हारे बाजार से खरिदी गइ चस्मा से
वैसा ही दीखा
गुण्डागर्दी अाैर राजनीति
वैसा वैसा ही दीखा
समाजसेवा अाैर व्यापार
कुछ भी अन्तर नही दीखा ।

नहीं कुछ भी अन्तर नही दीखा
साफ अाैर गन्दे मन
परिश्रम से प्राप्त पारिश्रमिक
अाैर कमिशन से प्राप्त नगद
कोही अन्तर नहीं ।

तुम्हारे बाजार से खरिदी गइ चस्मा
काला अाैर सफेद रंग
वैसा ही वैसा दीखा
कहीं कुछ भी नहीं छुटा

अब मैं ,
तुम्हारे बाजार से खरिदे गए चस्मे से
पूर्णत : मुक्त होना चाहता हुँ
नई खरिद नहीं सकता , बोल कर भी
तुम्हारे बाजार से खरिदी गइ चस्मा
पत्थराें से कुचलकर
टुकडा टुकडा करना चाहता हुँ
कम से कम नंगे अाँखाे द्वारा
काेई दृष्टि भ्रम नहीं होता
मैं शेष जीवन दृष्टि भ्रममें जीना नहीं चाहता ।

यह चस्मेका बाजार तुम्हारा है
यह उत्तरआधुनिक बाजार
मुझे पता है
मुझे कोई दूसरा ही बाजार खोजना है
तुम्हारे बाजार से खरिदी गई चस्मा से
जो भी देखता हुँ , भ्रम ही भ्रम दीखता है

तुम्हारे बाजार से खरिदी गई चस्मा से
मैं जाे देखना चाहता हुँ
वैसा कुछ भी नहीं दीखा
पूर्वसे उदय होने वाला सूर्य भी नहीं दीखा
नहीं , कुछ भी नहीं दीखा
कीचड में फूलने के लिए प्रतिस्पर्धा करने वाला
कमल के फूलाें भी नहीं दीखा ।

यह चस्मा लगानेके वाद कुछ ऐसा दीखे
हँसते हँसते झोला लेकर विद्यालय जाने वाले बच्चे दीखें
क्लबके भितर जोरदार आवाज में
हँसते हुए जेष्ठ नागरिक बृन्द दीखें
निरन्तर सुनाई दे , उनके हँसने कि गुन्जन
तुम्हारे बाजार से खरिदी गई चस्मा से
वैसा कुछ भी नहीं दीखा ।

तुम्हारे बाजार से खरिदी गई चस्मा से
मैँ शीघ्र ही मुक्ति चाहता हुँ ।


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नेपालीबाट हिन्दीमा अनुवाद
प्रा. डा . उषा ठाकुर

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